आपातकाल 25 जून 1975: भारतीय लोकतंत्र का सबसे स्याह अध्याय!
✍️ बी के भारतीय
आज से ठीक 50 वर्ष पूर्व, भारतीय लोकतंत्र ने एक ऐसा मोड़ देखा था, जिसने देश की राजनीतिक चेतना, संवैधानिक मूल्यों और नागरिक अधिकारों की सीमाओं को गहराई से झकझोर कर रख दिया था। 25 जून 1975 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा घोषित आपातकाल (Emergency) केवल एक संवैधानिक निर्णय नहीं था, बल्कि भारतीय लोकतंत्र की आत्मा पर पड़ा एक गहरा प्रश्नचिह्न था।
पृष्ठभूमि: जब सत्ता संकट में थी
1971 के आम चुनाव में भारी बहुमत से जीत दर्ज करने के बाद इंदिरा गांधी की लोकप्रियता चरम पर थी। लेकिन 1975 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उन्हें चुनावी अनियमितताओं के आरोप में दोषी ठहराते हुए उनकी लोकसभा सदस्यता रद्द कर दी। इस फैसले ने सत्ता की नींव को हिला दिया। इसके साथ ही विपक्षी दलों और जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में तेज होते जनांदोलनों ने सरकार को घेर लिया।
25 जून की रात: संविधान की चुप्पी
उस रात राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने इंदिरा गांधी की सलाह पर संविधान के अनुच्छेद 352 के अंतर्गत देश में आंतरिक संकट के आधार पर आपातकाल की घोषणा पर हस्ताक्षर कर दिए। सूचना प्रसारण मंत्रालय ने अगले ही पल मीडिया पर सेंसरशिप लागू कर दी। सुबह होने तक अखबारों की स्याही सूख चुकी थी, पर उनकी आवाज बंद कर दी गई थी।
क्या बदला आपातकाल में?
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मौलिक अधिकारों का निलंबन:नागरिकों के अधिकार छीन लिए गए। कोई अदालत व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा नहीं कर सकती थी।
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राजनीतिक गिरफ्तारियाँ:जयप्रकाश नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, जॉर्ज फर्नांडीस समेत हजारों विपक्षी नेता और कार्यकर्ता बिना मुकदमे के जेल में ठूंसे गए।
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मीडिया पर ताले:‘इंडियन एक्सप्रेस’ और ‘स्टेट्समैन’ जैसे अखबारों ने खाली संपादकीय छापकर विरोध जताया, पर सरकार ने हर स्वर को कुचलने की कोशिश की।
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संजय गांधी का उभार:सत्ता के पीछे से शासन चलाने लगे संजय गांधी। जबरन नसबंदी, झुग्गियों का ध्वस्तीकरण और प्रशासनिक मनमानी से जनक्रोध बढ़ा।
जनता की प्रतिक्रिया: भय, विरोध और आशा
आपातकाल के दौरान अधिकांश जनता खामोश रही, क्योंकि पुलिस और सरकारी मशीनरी का भय मन में बैठ गया था। लेकिन अंदर ही अंदर एक आक्रोश भी पल रहा था — एक ऐसा असंतोष जो 1977 के चुनाव में फूट पड़ा। इंदिरा गांधी और कांग्रेस को करारी हार का सामना करना पड़ा। यह लोकतंत्र की आत्मा की वापसी थी।
50 साल बाद की सीख
आज, जब आपातकाल की 50वीं बरसी मनाई जा रही है, यह जरूरी हो जाता है कि हम केवल इतिहास को याद न करें, बल्कि उससे सबक भी लें। आपातकाल यह सिखाता है कि:
- सत्ता की जवाबदेही जितनी आवश्यक है, उतनी ही जरूरी है जनता की जागरूकता।
- संविधान का सम्मान केवल शपथ लेने तक सीमित न रहे, बल्कि व्यवहार में झलके।
- मीडिया की स्वतंत्रता और न्यायपालिका की स्वायत्तता लोकतंत्र की रीढ़ हैं।
निष्कर्ष: इतिहास चेताता है, रुकता नहीं
आपातकाल का दौर भले ही समाप्त हो गया हो, लेकिन उसकी छाया बार-बार भारतीय राजनीति और नागरिक चेतना में लौटती रही है। यह घटना हमें याद दिलाती है कि लोकतंत्र केवल एक प्रणाली नहीं, एक निरंतर संघर्ष है — विचारों, अधिकारों और नैतिकता का संघर्ष। और उसमें हर नागरिक की भूमिका उतनी ही अहम है जितनी किसी नेता की।
यह रिपोर्ट विभिन्न मीडिया स्रोतों के आधार पर तैयार की गई है।