कितने नादान भगवान, कितने शातीर इंसान, धर्मस्थान बने कमाई के स्रोत!
नागपुर (महाराष्ट्र): नागपुर शहर की अग्रणी "हिंदी महिला समिति" संस्था ने एक अत्यंत सारगर्भित विषय पे "परिचर्चा"रखी जो एक विचारणीय है। उक्त चर्चा "हिंदी महिला समिति" अध्यक्षा एड.रतिचौबे की अध्यक्षता में हुई। इसमें शहर की सभी प्रतिष्ठित बहनों ने अपने विचार प्रस्तुत किए, जिन पर समाज के सभी लोगों का ध्यान जाना चाहिये और समाज को विचार भी करना चाहिए। अध्यक्षा लेखिका, कवियित्रि रतिचौबे, शिक्षिका गीता शर्मा, एड. सुषमा अग्रवाल, भगवती प़त (गायिका), रेखा तिवारी (शिक्षिका), साहित्यकार, कवि सुधा राठौर, जयश्री उपाध्याय (लेखिका), रेखा पांडे (व्यंजन विशेषज्ञ), कवि मीरा रायकवार, समाज सेविका मीना तिवारी, कवियित्रि पूनम मिश्रा, डा.कवितापरिहार, कवियित्रि अपराजिता आदि सम्मिलित हुई।
कार्यक्रम के आरंभ में अध्यक्षा रति चौबे ने कहा कि आज भव्य मंदिरो को देख एक आत्मतुष्ठि होती है, पर यह तुष्ठी उन मंदिरों मे जाकर उस वक्त खत्म हो जाती है। जब वहां कहा जाता है कि यहां आप पावती ले कुछ रुपए दे प्रवेश करे। उस समय उस भक्त की आस्था खत्म हो जाती हैै। धार्मिक स्थानों पर मानसिक शांति को जाते है पर जरुरी नही की सभी वहां धनराशी दे। पर अनेक स्थलों पर मंदिर केवल कमाई के स्त्रोत हैं। आज इंसान इन आस्था के स्थलों को भी व्यापार बना अपने शातीर स्वाभाव को नहीं छोड़ता। आज सुदामा कैसे जाए भव्य मंदिरो मे कृष्ण भी वहां बंदी है। आज नादां ईश इन गिरगिट बने मंदिरो के ढोगी शातीरो को भी पहचान नही पा रहे है, जो आस्था, जापमंत्र व पूजा के नाम पर भक्त व नादां ईश्वर को ढग रहे हैं। मंदिरों से करोडो रुपयों की कमाई कर रहे है। अन्याय हंस रहा है औऱ सत्य रो रहा है।
आगे पढिये सबके विचार ----
धार्मिक स्थल बने कमाई के अड्डे!
✍🏻 सुषमा अग्रवाल,
(अध्यक्ष,अखिल भारतीय मारवाड़ी महिला सम्मेलन)
सबसे पहले तो हम ही जिम्मेदार हैं। याद कीजिए जब हम गली-नुक्कड़ के किसी छोटे से मंदिर में जाते हैं तो..2-4 या 5-10 के छोटे नोट या फुटकर जेब में रखकर ले जाते हैं। पर यदि किसी बड़े धार्मिक स्थल में जाते हैं तो खुदबखुद आपके हाथ 100 या 500 के नोट निकालने लग जाते हैं तथा आप स्पेशल दर्शन के नाम पर भी सैकड़ों रुपए देने को तैयार हो जाते हैं। बस यहीं से हम आरंभ करते हैं धार्मिक स्थलों की कमाई का सरलतम तरीका जो धीरे से बदल जाता है कमाई के अड्डों में।धार्मिक स्थलों के रख-रखाव, व्यवस्था आदि के लिए जहां ट्रस्ट बने हैं और सही हाथों में मैनेजमेंट है, वहां तो फिर भी ठीक है। ऐसी जगहों में धर्मार्थ, स्कूल अस्पताल, भोजनालय रैन-बसेरा आदि की निःशुल्क व्यवस्था रहती है। लेकिन जहां पर किन्हीं दो-चार विशेष व्यक्तियों के पास ही सारा रुपया-पैसा व अकाउंट रहता है, वहां तो धांधली निश्चित है। सब मिल-बांटकर पैसा बनाते, कमाते, उड़ाते और ब्याज-बट्टा खाते हैं। ऐसे ही धार्मिक स्थलों की संख्या आजकल अधिक है। हमें इनसे बचकर रहना चाहिए। कहीं भी, कुछ भी दान आदि दें तो उसकी रसीद अवश्य लें और उसकी भी जांच उचित रूप से करें। बस यही कलयुग का चलन है। धार्मिक संस्थाओं के नाम पर तमाम लूट-खसोट जारी है। हमें स्वयं समझ कर, बच कर रहना होगा। हमारी अपनी सावधानी में ही सुरक्षा है।
"देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान,कितना लोभी हुआ इंसान
मंदिरों को भी बनाया कमाई का सामान कितना.........."
✍🏻गीता शर्मा
स्वयं भगवान की रचना होते हुए भी इंसान आज भगवान का दर्जा भूल बैठे है।जितना बड़ा तथा प्रसिद्ध मंदिर है, उतना ही बड़ा व्यापार स्थल बना दिया गया है।भेदभाव और ऊंच नीच सबसे ज्यादा मंदिरों में ही देखने को मिल रही है।
अमीरों से दर्शन के लिए पास की व्यवस्था करके मोटी कमाई की जा रही है,गरीब भक्त भले ही घंटो कतार में लगा रहे,तो कहीं भगवान के लिए अंधविश्वास और अंधश्रद्धा तथा भगवान का डर बताकर दान दक्षिणा के नाम पर रुपए ऐंठे जा रहे है।
ईश्वर तो सहज है ,सरल है सर्वत्र है सबके लिए समान है,खुद भगवान को भी अपने नाम पर ऐसा सब होता देख शर्मिंदगी होती होगी पर इंसानों को कोई फर्क नहीं।
मंदिरों में चलनेवाले ये कमाई के अड्डे बंद होने चाहिए।ईश्वर परम आस्था और भक्ति के एकमात्र स्रोत है,भगवान के मंदिरों में ऐसे कमाई करना अक्षम्य पाप है।
मंदिरों में होनेवाले ऐसे कामों से भगवान के अस्तित्व और उनकी गरिमा को ठेस पहुंचती है,भगवान के मंदिरों को कमाई का साधन बनाना अति निंदनीय और अशोभनीय काम है।
"धार्मिक स्थल बने कमाई के अड्डे": ✍🏻सुधा राठौर
ईश्वर के प्रति श्रद्धा, आस्था और भक्ति के विक्रेताओं का, धार्मिक स्थलों में जमावड़ा। शेअर मार्केट पर मँडरा रहा है खतरा। भारतीय धार्मिक संस्कृति को भुनाने में लगे हैं ऐसे स्थलों पर कुकुरमुत्ते की तरह उग आए हैं पंडे, पुजारी, पूजा की सामग्री के विक्रेता और तो और भिक्षुक रूप धारण किए हुए बहुरुपिए। धोखाधड़ी का फूलता- फलता यह व्यापार, सामाजिक ढाँचे को दीमक की तरह खोखला कर रहा है। दर्शन की प्रतीक्षा में कतार में खड़े श्रद्धालुओं को निकट से दर्शन करवाने का लोभ दिखाकर ऐंठी जाती है मनमानी रकम। भक्त सामर्थ्यानुसार पास अथवा टिकट प्राप्त करते हैं। हट्टे-कट्टे पंडों की बढ़ी हुई तोंद स्वयं ही, कितनी रकम डकारी गई है, इसका परिचय देती है। मन्दिर के प्रांगण के प्रवेश द्वार पर दर्शनार्थियों से भाव-तोल करते इन पंडों को आपस में उलझते - झगड़ते देखा जा सकता है। यही नहीं साक्षात ईश्वर की प्रतिमा सम्मुख पंडित , तिलक लगाने (आशीर्वाद देने) के लिए पूजा की थाली आगे कर देता है, इसका आशय भक्त निश्चित रूप से समझ जाता है और अपना सौभाग्य मानकर मुठ्ठी खोल देता है। मनुष्य की भक्ति भावना के साथ ऐसा निन्दनीय खेल खेलने में बाहर बैठे तथाकथित ज्योतिष और पूजन सामग्री विक्रेता भी बढ़ चढ़कर ताल ठोकते हैं। एक बार मूर्ति को समर्पित सामग्री पुनः बिकने के लिए दुकानों पर आ जाती है। और अन्धविश्वास, अन्धश्रद्धा तथा अन्धभक्ति से ग्रसित मानव को अन्त तक अपने छले जाने का आभास भी नहीं होता। वह पूर्णतः संतुष्टि के साथ कि अब निःसन्देह उसपर ईश्वर की कृपा बरसेगी सोचते हुए प्रसन्नचित घर लौटता है।
शान्ति की तलाश में लूट रहे लोग!
✍🏻 सुश्री भगवती पंत
कभी कभी जीवन में शांति पाने की चाह में मनुष्य कोई सहारा ढूँढता है तो एक मात्र आधार उसे ईश्वर की शरण में ही दिखाई देता है। इसलिये वह मन की शांति के लिये अथवा दुखों व निराशा के निवारण हेतु कई बार मंदिरों में भटकता रहता है ताकि कुछ समय के लिये उसका मन शांत रह सके। इसी कारण पुराने समय से ही मनुष्य तीर्थ स्थल की यात्रा करता चला आ रहा है। परंतु आज मंदिरों में पूजा कराने वाले पुजारी व पंडे अपनी धन लिप्सा के कारण मंदिरों में शांति की तलाश में आये हुए लोगों को ईश्वर का भय दिखा कर मनमाना धन वसूल कर रहे हैं, जो कि एक प्रकार का अनाचार ही है। मन को शांति देने वाले मंदिर और तीर्थ स्थान अब शांति नहीं बल्कि मन को और भी अशांत करने लगे हैं। लोग जब ईश्वर के दर्शन हेतु मंदिरों में जाते हैं, तो पंडे उन्हें इस बात से भयभीत कर देते हैं कि बिना चढ़ावे के ईश्वर उनकी प्रार्थना स्वीकार नहीं कर सकते। चढ़ावे में दिया गया पैसा भी पंडों या पुजारियों के मनोनुकूल होना चाहिये। धनवान व्यक्ति तो पुण्य प्राप्ति के लालच में मनचाही भेंट चढ़ा सकता है पर हर व्यक्ति पुजारियों की इच्छा के अनुसार पैसे नहीं दे पाता है जिस कारण पंडे उन्हें पाप का भय दिखाते हैं। पाप अथवा भावी अनिष्ट की आशंका से लोग किसी तरह से धन का इंतजाम करके उन्हें दे भी दें तो उन्हें अपने जीवन के अन्य खर्चों को कम करना पड़ जाता है और फिर सकून पाने के बदले वे और भी अधिक दुखी व निराश होकर वापस आते हैं। वे लोग यह नहीं समझ पाते हैं कि भगवान पैसों के नहीं वरन प्रेम भाव के भूखे हैं और ये लालची पुजारी सरल हृदय भक्तों की भोली भावना से खिलवाड़ करते हुए अपना उल्लू सीधा किया करते हैं। आज अधिकांश धार्मिक स्थल पैसे वसूलने के अड्डे बन गये हैं। आज दीनानाथ प्रभु की सरेआम बोली लगायी जारही है। भोले भगवन मूक रहकर यह अनाचार अपनी आँखों से देख रहे हैं। पर नहीं, जनता को अब चुप बैठना नहीं चाहिये। मिलकर कर इस लूट के विरूद्ध आवाज उठानी चाहिये। इसके साथ ही सरकार का भी कर्त्तव्य है कि वह धार्मिक स्थलों के उचित रख- रखाव के साथ पंडों व पुजारियों के उचित जीवनयापन के लिये पर्याप्त वेतन निर्धारित करे ताकि पुजारियों को मंदिरों में आने वाले लोगों से मनमानी भेंट वसूल न करनी पड़े तथा मन की शांति चाहने वाले अथवा तीर्थाटन के इच्छुक लोग चिंता मुक्त होकर मंदिरों का भ्रमण कर सकें।
आज भक्ति का स्वरूप कहाँ गया?
✍🏻 रेखा तिवारी
भारत देश देवभूमि साधू संतों की भूमि हैं भारतीय संस्कृति को आज विदेश में भी अपनी जड़े जमा रही हैं। लेकिन यही पवित्र भूमि जब लोभ, लालच और पैसे कमाने का जरिया बन जाता हैं तो मन मे एक बैचेनी छा जाती हैं। विश्वास ही नही की मानव मन अभी ईश्वर को भी धोखा देने लगा हैं। जिस ईश्वर ने इंसान को बनाया वो ही उन्हे धोखा दे रहा हैं। इस से बढ़कर और बड़ी विडंबना क्या हो हो सकती हैं। निर्मल बाबा, आसाराम, राम रहीम, राधे माँ ऐसे अनेको लोग हैं जो धर्म के नाम पर लूट मचा रखी हैं क्या ये उचित हैं?
लोग-विश्वास के नाम पर अंधविश्वास फैलाने का धंधा करते हैं!
✍🏻जयश्री उपाध्याय
कुछ शातिर इन्सान अपना स्वार्थ साधने के लिए लोग-विश्वास के नाम पर अंधविश्वास फैलाने का धंधा करते हैं और लोगों मे भ्रम फैलाकर उनसे खुब पैसे ऐठते है। दुर्भाग्य यह है कि हमारा समाज उस अंधविश्वास से भरा हुआ है और ना खत्म होने कि संभावना है, पुरानी प्रथा परंपरा जो ठहरी। विडम्बना ये है कि इसमें महिला फसती जा रहीं हैं। जकड़ती जा रही हैं।
पूरुष प्रधान संस्कृति में स्त्री पर अत्याचार हो रहा है, मान्यताओं के चलते पाखंड मे फसा कर स्त्री के स्वतंत्रता पर पाबंदी उचित मानते इसलिए स्त्री को कर्मकाण्ड मे उलझाया रखा है। स्त्री के मौलिक अधिकार का हनन हो रहा है। भगवान सबको समान समझता तो स्त्री-पुरुष मे भेद क्यों? स्त्री गलत मान्यताएँ व परंपरा मे, श्रध्दावश अपने आप को सौंप देती हैं।
"वो शातिर इन्सा, कहते है हमसे,
ये समय नहीं है, मुहूर्त की!
नादा इन्सा, क्या जाने?
कीतनी जेब भरे,अपने आप की"
कुछ स्वार्थी लोग अपना धंधा चलाने के लिए लोगों को डराते हैं। उनके हिसाब से चलो तो ठीक! वह तर्कबुद्धि के विपरीत कहते, ' वो जो कहे तो तर जाता है, नही तो भोगते रहेगा.... '! फर्जीवाड़ो से दूर रहे! हमने दिन-रात एक करके, पै पै जोडकर, कष्ट उठाकर, कमाया धन भोगी लोगों पर ना लूटाए। उनको ऐशोआराम की जिंदगी की आदत ना डाले। कष्ट कर मेहनत की कमाई का आनंद उठाने की आदत डालकर, तो दीखाऐ! दहशत कम हो जाएगी! अपनी मेहनत की चीज हो जाएगी! जीवन सरल हो जाएगा
दर्शन के चार्ज क्यो?
✍🏻रेखा पांडेय
हम बचपन से ही हमारे यहाँ पूजा पाठ देखते हैं । मंदिरों में हम कुछ न कुछ चढावा चढाते ही हैं । हम अपनी मर्जी से वैसे भी दान करते हैं । परन्तु जो हम लोगों से अतिरिक्त सुविधा के नाम से लिया जाता है जैसे कई जगह जल्दी दर्शन करने लिए अतिरिक्त चार्ज लेते हैं और उनकी लाइन अलग और जो अधिक पैसे न देना चाहे उनकी लाइन अलग होती है ।इस तरह का व्यवहार कई जगहों पर होता है ।
"धार्मिक स्थल बने कमाई के अड्डे "
✍🏻मीरा रायकवार मोदिनी
धार्मिक स्थल एक ऐसा पवित्र स्थान होता है जहां मनुष्य अपने दुख दर्द, मनोकामना, पूरी हुई कामनाओं को बताने जाता है। आस्था के साथ प्रभु की छबि अपने मन में रख जाता है। जहां वह मन ही मन प्रभु से बात कर संतुष्ट होता है।
ऐसे धार्मिक स्थलों पर चढ़ावे के लिए पूजन सामग्री मंहगी तो होती ही है पर जो नारियल, खंड चढ़ाया जाता है वह पीछे के दरवाजे से पुनः दुकान पर आ जाता है। फिर किसी दूसरे को वह बेच दिया जाता है। वहीं पंडे भी अलग-अलग पूजा पाठ के लिए मनचाही दक्षिणा ले लेते हैं। दर्शन जल्दी व सुविधा से हो लाइन न लगाना पड़े उसके लिए अलग से रुपये मांगते हैं।प्रसाद जिसमें भगवान का आशीर्वाद होता है, अनेकों को हम बांट खुश होते हैं, वह भी बेचा जाता है। इन सब से मन कड़ुआ हो जाता है।हम सब प्रेम, विश्वास, आस्था की भावना लेकर जाते हैं वहां सब एक समान होते पर पुजारी वर्गों में बांट देते हैं।इस तरह धार्मिक स्थल कमाई के अड्डे बन चुके हैं।
धार्मिक स्थल बने कमाई के अड्डे
✍🏻 पूनम मिश्रा 'पूर्णिमा'
ईश्वर आस्था श्रद्धा भक्ति भारतीय संस्कृति की सबसी बड़ी देन है। यहां तक की मनुष्य अपनी मनोकामना पूरी करने के लिए संकल्प ग्रहण करते हैं। तीर्थ स्थल जाते हैं। यह सब जीवन का ही भाग है। बड़े बुजुर्ग भी कहते हैं जीवन में तीर्थ यात्रा होनी चाहिए। आज देश क्या विश्व में मंदिर का निर्माण किया गया है, जो आस्था बयां करता है। बड़ी ही श्रृद्धा से भक्त मंदिरों में दर्शन करने जाते हैं, लेकिन मंदिर के बाहर बडी संख्या में दुकान पूजा सामग्री से सजी होती है। भक्त वहां से सामाग्री खरीद कर दर्शन के लिए अंदर जाते हैं। दान दक्षिणा करते हैं। यह सब अपनी इच्छा से भक्तों द्वारा किया जाता है लेकिन कुछ स्थानों पर या तीर्थ स्थल पर मंदिर से जुड़े लोग भक्तों को लूटते हैं। आज हर वस्तु बिकती है। बस इसी ताल पर कलाई में मौली बांधना, माथे पर तिलक लगाना हर किसी की दक्षिणा देना होता है। मंदिर के बाहर भी कुछ समिति सदस्य अपनी रसीद बुक लेकर बैठे होते हैं जो अभिषेक की राशि लेते हैं। आजकल शानदार मंदिर स्वच्छ परिसर के लिए दान दक्षिणा की आवश्यकता होती है, लेकिन आज हर मंदिरों की कमाई भी करोड़ों में है। मुंबई का सिद्धविनायक मंदिर हो या तिरुपति बालाजी का मंदिर हो। यहां सिर्फ धन राशि ही नहीं बल्कि हीरे जवाहरात भी दान में दिए जाते हैं। महाराष्ट्र का गणेशोत्सव जहां लाल बाग का राजा का दस दिन की कमाई करोड़ में होती है, यहां बैंक से मशीन लाकर नोटों की गिनती की जाती है। हम इन दो उदाहरण से ही समझ सकते हैं कि मंदिर में कमाई कितनी होती है। कोरोना जैसी महामारी के समय जब देश में गरीबों की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी, तब भी यह प्रश्न उठाया गया था की मंदिरों की तिजोरी खोलकर गरीब लोगों को बचाया जाए, क्योंकि जीने का अधिकार सभी का है।
चंदा इकट्ठा करने की परंपरा है जहां भक्त मन से दान करते हैं फिर भी मंदिर के नाम पर पैसों को लूटा जाता है। यदि कर्मकांड में गंगा किनारे बैठे पंडे भी लोगों से मनमानी राशि लेते हैं। मंदिर ऐसा होना चाहिए जहां बेसहारा को सहारा मिले, बेरोजगार को रोजगार मिले, भूखे को भोजन मिले।
कितने भोले है भगवान!
✍🏻मीना तिवारी
कितने भोले है भगवान! यह तो जग जाहिर है। तभी तो आज भी बहुत से भक्त ये मानते है कि उनके भगवान उनके बनाये हुए खाने का भोग ग्रहण करते है और मान्यता भी है। सच्चे मन से ईश्वर की, की गई पूजा उनके तक पहुच ही जाती है। ये बात सत्य भी है। पर दुख की बात ये है कि आजकल किसी को पूजा करने को 5 मिनिट भी वक्त नही है। भगवान का ध्यान करना लगभग मुश्किल हो गया है तो ऐसे में लोग मंदिरों में जाते है। वहा ये सोचते है कि हम तो ईश्वर के दरबार मे आकर प्रणाम कर लिए ये बहुत बड़ी बात है। उस वक्त उन्हें लाइन में भी लगाने की फुरसत नही होती जिस वजह से साइड से पैसे देकर दर्शन करना चाहते है। उनके इन्ही हरकतों के वजह से कुछ बुजुर्ग लाचार लोग या निर्धन लोग अक्सर तकलीफों का सामना करते है और जो वहां पुजारी होते है उनका लालचपन बढ़ते ही जाता है। स्थिति आज ऐसी है कि कई मंदिरों और धार्मिक स्थालो पर ऐसे लोग जा नही पाते। क्योकि, उन्हें ये लगता है कि वह मंदिर में पुजारी पैसे ज्यादा मांगेगे या दर्शन नही हो पाएंगे ।इसे हमे रोकना चाहिए जो भी दर्शन करने आये है उन्हें उन कतारों में लग कर ही दर्शन करना होगा। हां, असमर्थ हो तो बात ही अलग है। मंदिर और कोई भी तीर्थ स्थल को कमाई का धंधा न बनने दे। हमे ये सोचना चाहिए कि अच्छी बात है। जितनी देर लाइन में रहेंगे ईश्वर की भक्ति के रहेंगे उन्हें याद करते रहेंगे। ईश्वर इस बात से ज्यादा खुश होंगे। वरना ईश्वर भी यही सोचते होंगे "मै तो नही इंसान में।
बिकता हूँ मै हर दुकानों में,
दुनिया बनाई मैंने हाथो से,
मिट्टी से नही जज्बातों से,
ढूंढता हूँ दर बदर मेरे निशा,
.....है कहाँ... मेरे निशा...?
धार्मिक स्थल बने कमाई के अड्डे!
✍🏻डॉ कविता परिहार
आज का विषय चिंतन मनन का विषय है वैसे तो हम कहते हैं "गॉड इज एवरीव्हेयर" तन में राम मन में राम, रोम रोम में राम बसे। फिर भी यह दिल है कि मानता ही नहीं। हम कुछ दर्शन हेतु तो कुछ मनोकामना की पूर्ति हेतु, मंदिरों के प्रांगण में पहुंच जाते हैं। वहां जाकर जब हम देखते हैं हजारों लाखों की तादाद में लोगों कीभारी भीड़ उमड़ी है। परेशान हो जाते हैं। कुछ लोगों की चैन, मोबाइल मंगलसूत्र, पर्स, लाइन में ही मार दिए जाते हैं, तों कुछ भक्तों को पंडे लूट लेते हैं। शास्त्री भविष्य बताने बैठे रहते हैं, जो हाथ देखने का तो पैसा वसूलते ही है साथ ही एक भारी पूजा करने की सलाह देते हैं। आप का समय अच्छा नहीं चल रहा है, अनिष्ट से बचने के लिए ही आप को पूजा पाठ करना जरूरी है। यदि आप ने कहा कि हमारा तो वापिस जाने का रिजर्वेशन हैं, तो वो बड़े प्यार से समझाते हैं 15/ 20 हजार की तो बात है यह पूजा 7 दिनों तक चलेगी और फिर आपके बेटे पति से ज्यादा पैसा तो है नहीं। कई लोग इमोशनल हो के वहां भी लूट लिए जाते हैं। कई दिनों से आप प्लान बना रहे थे और अब दर्शन करना ही है तो वीआईपी पास लेना होगा। क्षेत्र से पंडितों को और कर्मचारियों को पेमेंट दिया जाता है। कुछ मेंटनेंस में लगाया जाता है भोजन, प्रसाद व्यवस्था एवं साफ-सफाई आदि पर खर्च होता है। कुछ सरकारी खजाने में भी जमा होता है। सरकारी प्रशासन के अधिकारियों के पास भी इसका लेखा जोखा होता है, और मां 7 परसेंट निर्धनों कार्य किया जाता है भिखारियों पर खर्च किया जाता है।
हमें भी चाहिए कि हम सोच समझकर दान पुण्य करें। भ्रष्टाचार तो हर क्षेत्र में पैर पसारे बैठा है। यह तो हम सभी जानते हैं कि मंदिर सिद्धिविनायक हो या तिरूपति बालाजी साई बाबा का हो या वैष्णो देवी का, सोमनाथ मंदिर हों या जगन्नाथ जी करोड़ो में आवक है। सोना भी जितना हमारे भारत देश में है पूरे विश्व में नहीं।अंत में मैं तो कहुगी कि लुटेरों का हर क्षेत्र में बोलबाला है।
"देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान। कितना बदल गया इंनसान"
✍🏻अपराजिता राजौरिया
भगवान ने तो सबको अच्छा ,भोला भाला और सीधा-साधा इन्सान ही बनाया था, फिर उनमें इतनी लालच, और स्वाथीॅपन कहां से आ गया? दूध में यूरिया। घी में जानवरों की चबीॅ। लालच में आकर कितना अंधा हो गया हो गया है कि अपनी ही नस्लों को नुकसान पहुचा रहा है।
मंदिर अमीर भी जाते है और गरीब भी।गरीब बिचारे एक टोकरी थोड़ा सेफूल मिश्री और अगरबत्ती लेकर घन्टों प्रतीक्षा करके भगवान के दर्शन करके एक सन्तुष्टी चेहरे पर लेकर लौटते हैं। वहीं अमीर बड़ी सी गाड़ी से उतरेगें तो उनका ड्राइवर 500,10000 रुपये का पास लेकर आएगा। फिर मंदिरो में मुख्य पंडितऔर छोटे मोटे पन्डों की मिलाभगत से ना जाने कौन-कौन से मंत्रो के उच्चारणों के बीच ग्रहों की शान्ति के नाम पर दक्षिणा के नाम पर मोटी रकम ऐंठी जाती है। पर मन्दिर से बाहर आने पर उनके चेहरे पर वो सन्तुष्टी दूर-दूर तक कहीं नज़र नहीं आती। इसके लिए कही न कहीं हमारा समाज ही जिम्म्दार है! धामिॅक स्थलों पर वीआइपी दर्शनों को मान्यता ही नहीं देनी चाहिऐ। सब के लिए ही फीस एक जैसी होनी चहिए। साथ ही वहां चढ़ाने वाली रकम भी निश्चित की जानी चाहिऐ। ताकि, निम्न वर्ग के लोगों को हीन भावना के नज़र से दूर किया जा सके।
आश्रम हमारे भारत की शान होते थे। जहां बच्चे शिक्षा के साथ ही संस्कार, बडों का आदर करना, स्वावलम्बी बनने के साथ ही धामिॅकता भी सीखते थे। परंतु आसाराम बापू और डेरा के राम रहीम जैसे लोगों ने अयाशी के साथ ही कमाई का ज़रिया बनाकर, गोरख धन्धे शुरू कर के, आश्रमों की पवित्रता पर कलंक लगा दिया है। भगवान नादान है तभी तो मनुष्य को पांच इनद्रियों के साथ ही सोचने और समझने की शक्ति भी प्रदान की है। पर इन्सान की धन लोलुपता ने उसे हैवानियत की सारी सीमा लांघने के लिऐ विवश करके इस हालत तक पहुँच दिया है कि आज हम भगवान को नादान और इंसान को शैतान मानने पर विवश हो चुके हैं !!